राजनीतिक दल और सूचना अधिकार का दायरा 

अयोध्या प्रकरण पर सर्वमान्य और ऐतिहासिक फैसले के तत्काल बाद सर्वोच्च न्यायालय ने एक ऐसा एैसा फैसला सुना कर देश दुनिया की न्यायिक व्यवस्था को चौका दिया  जिसमें मुख्यन्यायाधीश के कार्यालय को भी सूचना के  अधिकार में शामिल कर लिया। तमाम लोगो को अच्छा तो नही लगेगा लेकिन कहने वाले तो यहां तक कहते हैं कि यदि मनमोहन सिंह की सरकार ने नौ वर्षो तक कुछ भी ना किया होता तो सूचना का अधिकार लाकर संविधान के अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के मौलिक अधिकार में जानकारी के अधिकार को जोड़ कर संविधान की कमी को पूरा कर दिया। यह एक ऐतिहासिक फैसला था। इसमें सेना, न्यायालय, राजनीतिक दलों को सूचना के अधिकार से मुक्त रखा था। सर्वाेग्च्च न्यायालय ने मुख्य न्यायाधीश के कार्यालय को सूचना के  अधिकार की परिधि में लाकर फैसलों की दुनिया में एक ऐतिहासिक कड़ी जोड़ दिया। 
निस्संदेह सूचना के अधिकार ने  लोगों को राहत दिया है और भ्रष्टाचार पर भी अंकुश लगा है इसमें रंच मात्र संदेह नही। दुखद तो यह हैं कि अनेक राज्यों में सूचना   अधिकार को  कमजोर करने का षणयंत्र किया जा रहा है और सूचना मांगने वालों को धमकियां व हत्या तक के मामले सामने आ चुके हैं। ऐसे वातावरण में सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय ने सूचना अधिकार की महत्ता को पुनः रेखांकित किया है। अच्छा हो कि सूचना अधिकार की धार कमजोर ना पड़ने पाये। कानून की निगाह में सभी बराबर है और उससे ऊपर कोई नही है। सर्वोच्च न्यायालय ने एक ऐसा  फैसला देते हुए मुख्य न्यायाधीश के कार्यालय को भी सूचना के अधिकार  के दायरे में लाकर सूचना के अधिकार के प्राविधान को और मजबूत कर दिया और इस कानून को कमजोर करने की साजिश को नाकाम कर दिया। 
 सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश के कार्यालय को सूचना के अधिकार  दायरे में लाकर सर्वोच्च न्यायालय  के पांच सदस्यीय संविधान पीठ ने यह साफ कर दिया कि शीर्ष अदालत के प्रमुख न्यायाधीश का कार्यालय अब सूचनाधिकार कानून के दायरे में आ गया तो राजनीतिक दलों को स्वयं आगे आकर स्वयं अपने को सूचना अधिकार के दयारे में लाकर उदाहरण प्रस्तुत करना ही चाहिये। इससे न केवल जवाबदेही और पारदर्शिता में वृद्धि होगी  बल्कि न्यायिक स्वायत्तता भी मजबूत होगी।


अपने देश की आजादी में  मुख्य भूमिका निभाने वाले सबसे पुराने राजनीतिक दल कांग्रेस और दुनिया के सबसे बड़े राजनीतिक दल भाजपा को  स्वेच्छा से सूचना के     अधिकार की परिधि में लाने के लिये स्वयं प्रस्ताव लाना चाहिये। यदि राजनीतिक दल ऐसा नही करते तो केन्द्र सरकार को इस दिशा में प्रयास करना ही चाहिये । यही नही सबसे बड़ी अदालत को स्वयं संज्ञान लेकर राजनीतिक दलों को सूचना के अधिकार की परिधि में लाने का प्रयास करना ही चाहिये। यदि ऐसा हो सके तो राजनीतिक भ्रष्टाचार पर रोक लगेगी। चुनाव प्रक्रिया को और अधिक प्रभावी और पारदर्शी बनाने में मदद मिलेगी। 
   लेकिन निजता के दायरे को अगर छोड़ दिया जाए तो न्यायाधीशों के तबादले और पदोन्नति की प्रक्रिया में पारदर्शिता की अपेक्षा की गई थी। शायद यही वजह है कि अदालत ने पारदर्शिता के समांतर निजता के अधिकार को भी एक अहम चीज माना और प्रधान न्यायाधीश के कार्यालय से सूचना देते वक्त उसके संतुलित होने की अपेक्षा पर जोर दिया। अब यह माना जा रहा है कि इस बेहद अहम मसले पर छाई धुंध साफ हो सकेगी।