सामूहिक दुष्कर्म के बाद हत्या की शिकार हुई पशु चिकित्सक के सभी चार आरोपियों को पुलिस ने मुठभेड़ में मार तो गिराया । इसे लेकर लोक माध्यमों पर प्रशंसा और बिरोध का क्रम नही टूट रहा है। कुछ लोगो को तो ऐसा लग रहा है कि कठोर रूख से बलात्कार, हत्या, महिलाओं पर अत्याचार कम हो जायेगा। यह बात अलग श्रीमती मेनका गांधी और मुख्य न्यायाधीश समेत ऐसे लोगो की कमी नही है जो यह मानते हैं कि बदले की भावना से और पुलिस के इस प्रकार के काम से ना तो इंसाफ मिलने वाला है ना हि समस्या का सही अर्थो में समाधान ही हो पायेगा। सच तो यह है कि ऐसी समस्याओं का वास्तविक समाधान तभी होगा जब कि परिवार, समाज से लोगों को बेहतर संस्कार मिले। केवल कठोर कानून बना देने से इस समस्या का हल होने वाला नही है।
उत्तर प्रदेश के उन्नाव की घटना ने भी झकझोर कर रख दिया है जहां जमानत पर छूटे गैंगरेप के दो आरोपियों ने युवती को जलाकर हत्या कर देने का दुस्साहस किया।
ऐसे लोगो की कमी नही है जो हैदराबाद में 28 नवंबर को महिला पशु चिकित्सक प्रियंका के साथ जो कुछ हुआ, वह दिसंबर 2012 कीं निर्भया के साथ घटी की पुनरावृत्ति मानते हैं। यह भी कम चिंताजनक नहीं है कि दोनों महिलाओं के साथ यह बर्बरता राजधानियों में हुई- एक देश की, और दूसरी तेलंगाना की ।
इन दोनों शहरों की पुलिस को संसाधनों के मामले में देश में अव्वल माना जाता है और दोनों क्षेत्रों की सरकारें महिलाओं के लिए इन शहरों के सुरक्षित होने का दावा करती हैं। इन घटनाओं के बारे में जब तक परम्परागत माध्यमों और लोक माध्यमों ने शोरशराबा मचा कर आसमान सिर पर नही उठा लिया तब तक संवेदनहीन राजनीति और पुलिस के कानो ने ना कुछ सुना और आंखो ने हकीकत देखने समझने का जोखिम ही उठाया।
ऐसा नही है कि निर्भया के साथ हुई दुखद घटना पहली थी ना हि प्रियंका की घटना अंतिम होगी। ऐसा भी नही है यही दोनो घटनाये हुई और घटनाये हुई ही नही। अंतर केवल और केवल इतना है कि इन घटनाओं को लोमकमाध्यमों का प्रचार मिल गया और वे चर्चा में आ गयी। बाकी का कोई नाम लेवा नही मिला। निर्भया के बाद कानून सख्त किया गया और बलात्कार के मामलों में मृत्युदंड का अनिवार्य प्रावधान कानून का अंग बना।
यदि निर्भया कांड के बाद तंत्र सचमुच गंभीर हुआ होता, तो यह कैसे संभव हुआ कि हैदराबाद की पीड़िता के परिजन अपनी रपट लिखाने के लिए एक से दूसरे थाने की दौड़ लगाते रहे और वह मूल्यवान समय जाया हो गया, जिसमें भाग-दौड़ करने पर कम से कम उसकी जान बच सकती थी।
निर्भया के मामले में भी ऐसी ही लापरवाही हुई थी। इस बार भी नेताओं ने उतने ही गैर-जिम्मेदाराना बयान दिए। सोशल मीडिया पर लताड़े जाने पर तेलंगाना के गृह मंत्री ने अपना अविवेकी वक्तव्य वापस लिया।
निर्भया से लेकर हैदराबाद की प्रियंका की घटना तक अनगिनत मामलों में पीड़ित परिवारों को पुलिस और न्याय दिलाने वाले तंत्र की असंवेदनशीलता से जूझना पड़ा है। प्राथमिकी दर्ज कराने में हर बार देरी होती है और हर बार वह कीमती समय नष्ट होता है। हैदराबाद के मामले में कुछ पुलिसकर्मियों को हर बार की तरह निलंबित किया गया है, पर वास्तविकता यह है कि हर बार की तरह कुछ महीने बाद ये सभी बिना किसी दंड या बहुत छोटी सजा के साथ बहाल कर दिए जायेगे। होना तो यह चाहिए कि दंड प्रक्रिया संहिता और पुलिस रेगुलेशन में ऐसे संशोधन किए जाएं कि गंभीर मामलों में फरियादी बिना क्षेत्राधिकार के पचडे में उलझे किसी भी थाने को सूचित करके कार्रवाई की मांग कर सके ? निर्भया के समय जो सवाल पूछा गया था, वही इस बार फिर से पूछे जाने की जरूरत है। क्या हैदराबाद में हुई दंरिदगी भारतीय पुरुषों के आचरण और कानूनों में कोई बड़ा बदलाव ला सकेगी? निर्भया के मामले में देखा गया कि बड़ी संख्या में महिलाएं और नागरिक अधिकार संगठन सड़कों पर आये और सरकार को अनेक सकारात्मक कदम उठाने को बाध्य होना पडा। अब ज्यादा लड़कियां बलात्कार की शिकायत लेकर सामने आ रही हैं और ज्यादातर मां-बाप भी उन्हें कोसने की जगह उनके साथ मजबूती से खड़े होने में हिचकते नहीं हैं। यह बात ज्यादा लोगों की समझ में आ रही है कि बलात्कार के बाद शर्मिंदा पीड़िता को नहीं, अपराधी को होना चाहिये। अब समय का तकाजा है कि इस दिशा में केवल प्रवचन नही ठोस प्रयास हो।