सत्ता के स्वार्थ पर टिका है गठबंधन

तमाम उठापटक 80 घंटे में दो सरकारो के शपथ लेने के साथ ही भाजपा की तीन दशको की सियासी दोस्ती आखिर टूट ही गयी और भाजपा को दरकिनार कर शिवसेना ने राकापां और कांग्रेस को मिला कर ना केवल सरकार बना लिया अपितु उसे  विधानसभा के पटल पर 169 विधायको के समर्थन से बहुमत भी हासिल हो गया।


निस्संदेह यह गठबंधन कार्यक्रमो के आधार पर हुआ है तीनों दलो के बीच विचारों का कोई तालमेल नही है।  इस नये गठबंधन की सफलता तो भविष्य के गर्त में है लेकिन सदैव विजय की मुद्र में रहने वाली मोदी-शाह की जोड़ी अपने से ही पराजित हुई है। सच तो यह है कि जिन 21 राज्यों में भाजपा नीत सरकारे है उसमें 11 राज्यो में भाजपा की अपने बल पर सरकार है लेकिन अन्य राज्यों में सहयोगी दलो के सहयोग से सरकार चल रही है। 



 महाराष्ट्र में सबसे मजबूत सहयोगी शिवसेना के मुख्यमंत्री पद हाशिल करने को लेकर भाजपा का साथ छोड़ देने के बाद अब यह आकलन भी किया जाने लगा है कि जब शिवसेना भाजपा का साथ छोड़ सकती है नितीश कुमार जैसे सहयोगियों पर भाजपा कितना गुमान कर सकेगी ? महाराष्ट्र में जो  हुआ है उससे अभी कहीं ज्यादा होने से इनकार नही किया जा सकता। शिवसेना-एनसीपी और कांग्रेस का महाराष्ट्र से बड़े राज्य में और देश की आर्थिक राजधानी मुम्बई में एक साथ आना एक नये किस्म के राजनीतिक गठबंधन का संकेत है। इसे वक्त कहते हैं ।


धुर  हिंदुत्व वाली शिवसेना थोड़ी सेक्युलर बनने को तैयार है जबकि कांग्रेस और एनसीपी जैसी पार्टियां हिंदू दिखने को नही चूक रही हैं। निस्संदेह यह गठबंधन एक-दूसरे के प्रति सम्मान और सत्ता में बराबर की साझेदारी के साथ ही मोदी-शाह के वर्चस्वपरक नीति और अहंकार के बिरोध पर टिका है। 


  हिंदुत्व की राजनीति करने वाले इन दोनों दलों के टूट की वजह मूलतः सत्ता के वर्चस्व की लड़ाई ही रही। बालासाहेब ठाकरे के जमाने से ही दोनों पार्टियों के बीच सहमति बनी थी कि केंद्र में बड़े भाई की भूमिका भाजपा की होगी जबकि महाराष्ट्र में बड़े भाई वाली भूमिका शिवसेना निभाएगी। यह व्यवस्था गठबंधन वाले दौर की थी, जब किसी एक पार्टी को बहुमत नहीं मिलता था। 2014 के बाद देश की राजनीति बदली। पिछले दो लोकसभा चुनावों से भाजपा  स्वयं अपने दम पर स्पष्ट बहुमत में है और उसने ऐलान भी कर दिया है कि अब उसका लक्ष्य सिर्फ 50 फीसदी सीट पाना नहीं बल्कि 50 प्रतिशत मतदाताओं का वोट हासिल करना है।


साफ है कि भाजपा को अब कहीं भी दोयम साझेदार वाली भूमिका में रहना कतई कबूल नहीं है। यदि बिहार में भाजपा  को जेडीयू से एक भी सीट अधिक मिली तो अगले साल ठीक यही स्थिति वहां नीतीश कुमार के साथ भी हो सकती है। इसमें रंच मात्र की गुंजाइश नही होगी।



 महाराष्ट्र के बाद भाजपा  की गठबंधन दृष्टि दूसरे तरह की होने वाली है। समय आने पर सहयोगियों का साथ लेना और समय पार हो जाने पर उसे उसकी हाल पर छोड़ देने या अपने ही शर्ता पर ही  निभाने को मजबूर करने की नीति में भाजपा को महारत हाशिल है। उसे जब लगा तो मायावती से गठबंधन कर उ.प्र. में सामाजिक समरसता का गणित ठीक किया। समय-समय पर ममता बनर्जी, चंद्रबाबू नायडू, करुणानिधि और को दोस्त बनाया। एक वक्त आया कि भाजपा ने फारूक अब्दुल्ला को भी अपने साथ लिया लेकिन जब कश्मीर घाटी में जमीन तलाशने की दरकार हुई तो महबूबा मुफ्ती से हाथ मिलाकर सरकार बनाई और करीब ढाई साल तक चलाई भी। यही है भाजपा के गठबंधन धर्म का इतिहास और उसके निभाने की चिरपरिचित नीति।
हरियाणा को ही लीजिये  जहां भजपा बहुमत से महज 5 सीट पीछे रह गई तो उसने तुरंत ओम प्रकाश चौटाला के पोते और अजय चौटाला के बेटे दुष्यंत चौटाला की जेजेपी से हाथ मिलाने में देरी नहीं की। उसे जहां भी सरकार बनाने में जिसकी भी  दरकार होगी उसे साथ लेने में नही चूकेगी और साथ छोड़ देने में भी समय नही गंवायेगी।


शिवसेना के नेतृत्व वाले गठबंधन का क्या हश्र होगा यह तो आने वाला समय बतायेगा लेकिन  इतिहास बताता है कि भाजपा  को कोई भी  गठबंधन तभी तक स्वीकार है जब तक सत्ता में बने रहने के लिए वह आवश्यक  हो। ऐसा नहीं है कि  गठबंधन करने वाले सहयोगी दलों को यह पता नहीं है। लेकिन सत्ता में साझीदार बनने की उनकी अलग तरह की मजबूरी होती है जिसका इस्तेमाल भाजपा करती रही है। गठबंधन बनाने और फिर उसे तोड़ देने में फायदा हमेशा भाजपा  को हुआ।