दिनेश चन्द्र पाण्डेय (लेखक आवाज दर्पण में सम्पादक हैं)
सबसे दुखद बात यह है कि लाख प्रयास के बाद भी भारत का अपने पड़ोसी देशों नेपाल,पाकिस्तान और श्रीलंका के साथ सम्बंध किसी ना किसी मामले को लेकर प्रतिकिूल हो ही जाते हैं।
पाकिस्तान की बात छोड़ भी दें तो नेपाल और श्री लंका के साथ भी हमारे सम्बंध वास्तव में जैसा होना चाहिये नही है। नेपाल हमारा निकटतम पड़ोसी है और धार्मिक, सांस्कृतिक और सामाजिक तानाबाना हमारा एक दूसरे से जुड़ा हुआ है।
भारत नेपाल को हर दुख सुख में सहयोग भी करता रहता है फिर भी यह बात सही है कि चीन नेपाल में अपना हस्तक्षेप निरन्तर बढा रहा है। उसकी मंशा नेपाल को भारत के खिलाफ खड़ा करके अपना उल्लू सीधा करना है। भारत के अरूणांचल प्रदेश में चीन आये दिन समस्या खड़ी ही करता रहता है। भूटान जो भारत से विशेष संधियों से सम्बंधित है वहां भी अपनी हरकत से बाज नही आता।
अभी भाजपा के अरुणांचल प्रदेश के एक सांसद ने बड़े ही साफ सुथरे और स्पष्ट ढंग से सदन में बताया कि चीन लगभग 70 कि.मी. तक भारतीय सीमा में घुस आया है और दो जिलो पर कब्जा कर लिया है। दुखद कि सत्तारुढ़ दल के इस जिम्मेदार सांसद ने यह सोच कर अपनी बात सदन में रखा होगा कि उसकी सरकार कुछ करेगी। सांसद ने अपनी ही सरकार को चेताया कि चीन के इस कार्रवाई का बिरोध किया जाय लेकिन पूरी संसद को सांप सूंघ गया। कोई मुंह भी नही खोला।
सरकार को तो छोड़े विपक्ष के किसी सांसद ने अपना पक्ष नही रखा और ना हि सरकार को इस प्रकरण पर बोलने के लिये बिबश ही किया। पूरा सदन ऐसे सुनता रहा जैसे सम्बंधित सांसद मनोरंजन के लिये कुछ कह रहा है जिसको नजरंदाज करने में ही भलाई हैं।
आखिर सदन इतने गम्भीर मामले में मूकदर्शक क्यों बना रहा ? क्या हमारी सरकार पाकिस्तान को भिखारी बता कर तमाम बाते कहती रहती है लेकिन उस चीन का प्रकरण आते ही गूंगी बहरी हो जाती है जो पाकिस्तान को हर स्तर पर सहयोग कर रहा है और नेपाल तथा श्री लंका को भी भारत के खिलाफ भड़काता रहता है।
ऐसे में भारत को अपनी सजगता बनाये रखना होगा। भारत चाहे वास्तविकता से भले मुह मोड़ ले लेकिन नेपाल के लोगो को यह बात भलीभांति पता है कि नेपाल का हित साधन चीन से नही हो सकता। नेपाल के लोग चीन के षणयंत्र को पूरी तरह समझ गये है। इसीलिये नेपाल में चीन के दुष्चक्र को लेकर जिस प्रकार से विरोध प्रदर्शन हुये हैं इससे समझा जा सकता है कि चीन की मंशा को नेपालवासी समझने लगे हैं।
वहां की सरकार राजनीतिक लाभ के लिये कुछ भी करे लेकिन आम नेपाली को चीन के षणयंत्र का पता है। वे समझते हैं कि चीन नेपाल को भारत के खिलाफ खड़ा करना चाहता है और भारत नेपाल को सहयोग देना जहां कम किया चीन अपना रंग दिखायेगा और उसे पाकिस्तान जैसा भिखारी बनाने से चूकेगा नही।
भारत की जिम्मेदारी है कि वह अपने सबसे निकटतम पड़ोसी को चीन के चंगुल में जाने से बचाये और नेपाल को वास्तविकता का भान करावे। बेहतर होगा कि नेपाल में चीन द्वारा प्रायोजित भारत विरोधी षड़यंत्र पर लगाम लगे और नेपालवासी इस सत्य को समझे कि भारत उनका वास्तविक और प्राकृतिक मित्र देश है। चीन तो केवल भारत के बिरोध में खड़ा करके केवल अपना उल्लू सीधा करना चाहता है।
नेपाल में पिछले दिनों चीन के विरोध में प्रदर्शन हुए। दिलचस्प है कि इसकी शुरुआत भारत के विरोध से हुई। मामला कालापानी से जुड़ा था। यह क्षेत्र एक पहाड़ का ऊपरी भाग है जिसे भारत उत्तराखंड का अपना हिस्सा मानता रहा है।
अभी तक नेपाल की तरफ से इस क्षेत्र को लेकर आपत्ति नहीं थी, लेकिन अनुच्छेद 370 में हुए फेरबदल के बाद भारत की ओर से जारी नये नक्शे को लेकर विवाद हो गया। उधर नेपाल के कृषि विभाग को इस बात की सूचना थी कि चीनी सड़क परियोजनाओं के चक्कर में नेपाल की सैकड़ों एकड़ भूमि चीन के कब्जे में चली गई है। फिर नेपाल को होश आया और नेपाल के लोगो ने चीन के खिलाफ बिरोध प्रदर्शन शुरु कर दिया।
आवश्यकता इस बात की है भारत नेपाल को हकीकत बताये और चीन से सतर्क रहे। चीनी राष्ट्रपति के साथ झूला भी झूलते रहें, जिस चीन से मंदिर का लेना देना नही उसे मंदिर दिखाने का नाटक किया जाय। लेकिन चीन जैसे सांप को कितना भी दूध पिलाओं वह विषवमन का अपना स्वभाव नही छोड़ सकता। इसे जैसे भूले कि 1962 की वापसी समझो।